1---गुरु साधना से लक्ष्मी प्राप्ति
सर्वतंत्रस्वतंत्र या चिद्घनानंदमूर्तये ||”
‘ॐ त्वमा वह वहे वद वे
गुरोर्चन धरै सह प्रियन्हर्षेतु’
हे अविनाशी परमात्मा स्वतंत्र चैतन्य और आनंद मूर्ति स्वरुप गुरुदेव ! आपको
नमस्कार है |
हे गुरुदेव ! आप सर्वज्ञ हैं , हम
ईश्वर को नहीं पहचानते, न हि उन्हें कभी देखा है, और आपके द्वारा हि उस प्रभु या ईष्ट के दर्शन सहज और संभव है, मै अपना समर्पित कर आपका अर्चन पूजन कर पूर्णता प्राप्त करने का आकांक्षी
हूँ |
साधना क्रम :-
सफ़ेद वस्त्र, सफ़ेद आसन,
उत्तर दिशा, सामने गुरु चित्र, सामग्री में- कुमकुम ,अक्षत (बिना टूटे चावल ),
गंगा जल, केसर, पुष्प
(किसी भी तरह के), पंचपात्र, घी का
दीपक जो साधना क्रम में अखंड जलेगा, कपूर, अगरबत्ती, एक कटोरी |
साधक शुद्धता से स्नान कर सफ़ेद वस्त्र धारण कर उत्तर कि
ओर मुह कर बैठें | सामने बाजोट पर यदि गणपति विग्रह हो तो
स्थापित कर पूजन करें अथवा चावल कि धेरी पर एक सुपारी में कलावा बांधा कर गणपति के
रूप में पूजन संपन्न करें | तत्पश्चात पंचोपचार गुरु पूजन
संपन्न करें | और चार माला गुरु मंत्र कि करें अब अपने स्वयं
के शरीर को गुरु का हि शरीर मानते हुए अपने आपको गुरु में लीं करते हुए आज्ञा चक्र
में “परमतत्व गुरु” स्थापन करें |
परमतत्व गुरु स्थापन –
ऐं ह्रीं श्रीं अम्रताम्भोनिधये नमः| रत्ना-द्विपाय नम: | संतान्वाटीकाय नम: | हरिचंदन-वाटिकायै नम: | पारिजात-वाटिकायै नम: |
पुष्पराग-प्रकाराय नम: |गोमेद-रत्नप्रकाराय
नम: | वज्ररत्न्प्रकाराय नम: | मुक्ता-रत्न्प्रकाराय
नम: | माणिक्य-रत्नाप्रकाराय नम: | सहेस्त्र
स्तम्भ प्रकाराय नम: | आनंद वपिकाय नम: | बालातपोद्धाराय नम: | महाश्रिंगार-पारिखाय नम: |
चिंतामणि-गृहराजाय नम: | उत्तर द्वाराय नम: |
पूर्व द्वाराय नम: | दक्षिण द्वाराय नम: |
पश्चिम द्वाराय नम: | नाना-वृक्ष-महोद्ध्य्नाय
नम: | कल्प वृक्ष-वाटिकायै नम: | मंदार
वाटिकायै नम: | कदम्ब-वन वाटिकायै नम: | पद्मराग-रत्न प्राकाराय नम: | माणिक्य-मण्डपाय नम: |
अमृत-वपिकायै नम: | विमर्श- वपिकायै नम: |
चन्द्रीकोद्राराय नम: | महा-पद्माटव्यै नम: |
पुर्वाम्नाय नम: | दक्षिणा-म्नाय नम: |
पस्चिम्माम्नाय नम: | उत्तर-द्वाराय नम: |
महा-सिंहासनाय नम: | विश्नुमयैक-पञ्च-पादाय
नम: | ईश्वर-मयैक पञ्च पादाय नम: | हंस-तूल-महोपधानाय
नम: | महाविभानिकायै नम: | श्री परम
तत्वाय गुरुभ्यो नम: |
द्वादश कला पूजन:-
ऐं ह्रीं श्रीं कं भं तपिन्यै नम: |
(“ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं अं सूर्य
मण्डलाय द्वादश्कलात्मने अर्घ्यपात्राय नम:”, प्रत्येक मंत्र
के बाद इस मंत्र से पात्र में रखे हुए कुमकुम मिश्रित जल से दुसरे पात्र में
अर्घ्य देने हैं )
ऐं ह्रीं श्रीं खं बं तापिन्यै नम:|
ऐं ह्रीं श्रीं गं फं धूम्रायै नम:|
ऐं ह्रीं श्रीं घं पं विश्वायै नम:|
ऐं ह्रीं श्रीं ड़ं नं बोधिन्यै नम:|
ऐं ह्रीं श्रीं चं धं ज्वालिन्यै नम:|
ऐं ह्रीं श्रीं छं दं शोषिण्यै नम:|
ऐं ह्रीं श्रीं जं थं वरण्योये नम:|
ऐं ह्रीं श्रीं झं तं आकर्षण्यै नम:|
ऐं ह्रीं श्रीं ञं णं मयायै नम:|
ऐं ह्रीं श्रीं टं ढं विवस्वत्यै नम:|
ऐं ह्रीं श्रीं ठं डं हेम-प्रभायै नम:|
उपरोक्त कला पूजन में “ऐं ह्रीं
श्रीं” लक्ष्मी के बीज मंत्र हैं अतः इस प्रकार ये लक्ष्मी
के सभी स्वरूप हमारे शरीर में समाहित हो जाते हैं |
कोई भी धन का सही उपयोग तभी जीवन में पूर्ण आनंद और ऐश्वर्या देता है जब कि
लक्ष्मी के साथ सुख, सम्मान, तुष्टि-पुष्टि, ओर संतोष भी प्राप्त हो अतः सोलहकला
पूजन विधान है | इसके लिए गुरु को अर्घ्य पात्र में जल,
अक्षत, पुष्प, कुमकुम
लेकर समर्पित करें | पहले निम्न मंत्र से मूल समर्पण करें
फिर सोलह कलाओं के प्रत्येक मंत्र के साथ अर्घ्य पात्र में समर्पित करें |
ऐं ह्रीं श्रीं सौं उं सोम-मण्डलाय षोडशी कलात्मने अर्घ्य पात्रामृताय नमः |
Aim
hreem shreem saum um som-mandalaay shodashi
kalaatmane arghya paatraamritaay namah .
इस अर्घ्य को समर्पित करते समय उसका जल थोड़ा थोड़ा करके
सोलह बार ग्रहण करें, इसके बाद गुरु कि सोलह कलाओं का अर्घ्य
पूजन करें |
सोलह कला पूजन –
ऐं ह्रीं श्रीं अं अमृतायै नमः |
(ऐं ह्रीं श्रीं सौं उं सोम-मण्डलाय षोडशी कालात्मने अर्घ्य
पात्रामृताय नमः )
ऐं ह्रीं श्रीं आं मानदायै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं इं तुष्टयै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं ईं पुष्टयै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं उं प्रीत्यै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं ऊं रत्यै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं ॠं श्रीयै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं ऋृं क्रियायै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं लृं सुधायै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं लृं रात्रयै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं एं ज्योत्स्नायै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं हैमवत्यै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं ओं छायायै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं औं पूर्णीमायै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं अः विद्यायै नमः |
ऐं ह्रीं श्रीं वः अमावस्यायै नमः |
इसके बाद गुरु के मूल मंत्र का जाप करें “ॐ परम तत्वाय नारायणाये नमः “ (om param tatvaye
narayanaye namah )इस मंत्र कि एक
माला फेरें या जो आपका गुरु मंत्र है उसकी माला करें | अब अपने सामने किसी पात्र में दीपक और कपूर जलाएं | फिर अपने शारीर में हि गुरु को समाहित मानकर बेठे हि बेठे समर्पण और
आमंत्रण आरती करें |
पूर्ण सिद्ध आरती
अत्र सर्वानन्द – मय व्यन्दव - चक्रे परब्रह्म
- स्वरूपणी परापर - शक्ति - श्रीमहा – गुरु देव – समस्त – चक्र – नायके –
सम्वित्ती – रूप – चक्र
नायाकाधिष्ठिते त्रैलोक्यमोहन – सर्वाशपरी – पुरख – सर्वसंक्षोभकारक – सर्वसौ
– भाग्यादायक – सर्वार्थसाधक – सर्वरक्षाकर – सर्वरोगहर – सर्वासिद्धीप्रद
– सर्वानन्दरय – चक्र – समुन्मीलित – समस्त – प्रकट –
गुप्त – गुप्ततर – सम्प्रदाय
– कुल – कौलिनी – निगम – रहस्यातिरहस्य – परापर
रहस्य – समस्त – योगिनी – परिवृत – श्रीपुरेशी – त्रिपुरसुन्दरी
– त्रिपुर – वासिनी – त्रिपुरा – श्रीत्रिपुरमालिनी – त्रिपुरसिद्धा – त्रिपुराम्बा – तत्तच्चक्रनायिका – वन्दित – चरण
– कमल – श्रीमहा – गुरु – नित्यदेव – सर्वचक्रेश्वर
– सर्वमंत्रेश्वर – सर्वविद्येश्वर –
सर्वपिठेश्वर – त्रलोक्यमोहिनी – जगादुप्तत्ति – गुरु – सर्वचाक्रमय
तन्चक्र – नायका – सहिताः स – मुद्रा, स – सिद्धयः, सायुधाः, स – वाहनाः, स – परिवाराः, सर्वो-पचारे:
श्री परमतत्वाय गुरु परापराय – सपर्यया
पुजितास्तर्पिता: सन्तु |
इसके बाद हाँथ जोड़कर क्षमा प्रार्थना करें-
श्रीनाथादी गुरु – त्रयं गण – पति पीठ त्रयं भैरव सिद्धोध बटुक – त्रयं पद युग्म
दूती क्रमं मंडलम वीरानष्ट – चतुष्क – षष्टि
– नवकं वीरावली – पंचकं, श्रीमन्मालिनी – मंत्रराज – सहितं
वन्दे गुरोर्मंडलम |
स्नेही भाइयों बहनों इस प्रकार यह पूर्ण लक्ष्मी साधना
केवल एक बार किसी भी अमावस्या को या किसी भी रात्री को या दीपावली को संपन्न करने
से पूर्ण लक्ष्मी सिद्धि प्राप्त होती है |
इस नव वर्ष की शुरुआत इस महत्वपूर्ण साधना से करें और
पूर्ण आनंद ओर सुख, समृद्धि को प्राप्त करें, इसी अकांक्षा के साथ नव वर्ष कि शुभकामनाएं |
2- गुरु प्राण व रक्त कण-कण स्थापन प्रयोग:-
गुरु को अपने जीवन और रक्त में स्थापित करने की प्रक्रिया महत्वपूर्ण है। वर्तमान वातावरण, खान-पान प्रदूषित है, जो शरीर में जहर के समान है। यही रक्त के रूप में बहता है। सदगुरुदेव शक्तिपात के माध्यम से रक्त को शुद्ध करके दीक्षा प्रक्रिया को पूरा करते थे, लेकिन अब इसे साधना के माध्यम से पूरा किया जाना चाहिए। रक्त की अत्यधिक परिष्कृत चेतना गतिशील और रचनात्मक है, जो सत्व बिंदु के बीज रूप में परिवर्तित होती है। दिव्यता से ओतप्रोत होकर, यह वीर्य में परिवर्तित हो जाता है, जो महान अमृत के रूप में तेज और ओजस देता है, और ऊर्ध्व गति को प्राप्त करता है। यदि रक्त शुरू से ही हमारी धमनियों में बहता है, तो हम कई चीजों की चिंता किए बिना लंबा जीवन जी सकते हैं और कई दिव्य साधनाएं पूरी कर सकते हैं। गुरु तत्व हमारे जीवन का आधार है, और इसमें कोई भी स्वप्नदोष या स्खलन का डर नहीं होगा, चाहे वह शारीरिक, मानसिक या चरित्र संबंधी हो।
प्रयोग-विधि:-
किसी भी गुरुवार या रविवार को महेंद्रकाल में स्नान कर पीले
या सफ़ेद वस्त्र धारण कर पीले या सफ़ेद ही आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर
बैठ जाएँ,बाजोट पर गुरु चित्र
स्थापित हो,दैनिक गुरु पूजन के अनुसार
गुरु पूजन और गणपति पूजन कर गुरु मंत्र की ४ माला संपन्न करें.तत्पश्चात निम्न
मंत्र की ५१ माला मंत्र जप गुरु माला से
करें.
ॐ परम तत्वं ॐ\
OM PARAM TATVAM OM
ये क्रिया ३ दिनों तक करना है.क्रिया में प्रत्येक रक्त कण में सर्वोच्च तत्व को स्थापित करने के लिए तीन दिवसीय प्रक्रिया शामिल है, जिससे साधक की आत्म-धारणा में गहरा परिवर्तन होता है। सबसे बड़ा चमत्कार अवर्णनीय आनंद का अनुभव और गुरु के चरणों के प्रति समर्पण में वृद्धि है। यदि एक वर्ष तक प्रतिदिन 11 बार जप किया जाए, तो साधक को ब्रह्म बर्चस्व सिद्धि, ईश्वर जैसे बाल और शाप देने और आशीर्वाद देने की क्षमता प्राप्त होती है।
डिसक्लेमर
'इस लेख में दी गई जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। सूचना के विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/धार्मिक मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संकलित करके यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है.सिर्फ काल्पनिक कहानी समझ कर ही पढ़े .
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